


आज सुबह चाय के कप के साथ समाचार पत्र अमर उजाला पढ़ने के लिए उठाया तो माथे पर चिंता की लकीरें पड़ गईं। समाचार था कि 17 जुलाई को दिल्ली के कड़कड़डूमा कोर्ट परिसर के कोर्ट रूम नंबर 66 में शास्त्री नगर निवासी राकेश नाम का एक व्यक्ति अपने मामले के लंबित रहने से काफी निराश था और उसने फिल्मी लाइन “तारीख पर तारीख” चिल्लाते हुए कोर्ट का कंप्यूटर और फर्नीचर तोड़ डाला। राकेश, न्याय मिलने में देरी और अपने मामले में बार-बार दी जाने वाली तारीखों से नाखुश था. उसने जज के कक्ष के भीतर न्यायाधीश के टेबल पर भी तोड़फोड़ की। ये लंबित मुकदमों के प्रति जनता में भड़की एक बहुत छोटी सी चिंगारी है जो कभी भी ज्वाला का रूप ले सकती है। मात्र न्यायालय कक्ष और चैम्बर में बैठे रहने वाले न्यायाधीशों को भी इसकी तपिश महसूस करनी होगी क्योंकि अब न्यायाधीश विधि की परीक्षा पास करते ही सीधे न्यायाधीश बनते हैं पहले की तरह उनके लिए 3 साल तक वकालत करते रहना आवश्यक नहीं है। अक्सर देखा गया है कि कुछ न्यायिक अधिकारी मुकदमों में देरी का ठीकरा अधिवक्ताओं के ऊपर थोपते हैं जबकि कार्य करने वाले अधिकारी विधिक प्रावधानों का हवाला देकर मुकदमों का शीघ्र निस्तारण कर देते हैं।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के द्वारा साधारण बिंदुओं के निस्तारण के लिए सरकार के सचिव, जिलाधिकारी, पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों, आदि को व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में हाजिर होकर अपना शपथ पत्र अथवा स्पष्टीकरण दाखिल करने का निर्देश देना एक आम बात हो गई है। ऐसे आदेशों से प्रशासनिक कार्य काफी हद तक प्रभावित होते हैं इसलिए उच्चतम न्यायालय ने सिविलअपील उ0 प्र0 सरकार बनाम डा0 मनोज कुमार शर्मा में दिनांक 9 जुलाई 2021 को आदेश पारित करते हुए ऐसे आदेशों को पारित करने से बचने की सलाह दी है।
